Tuesday, April 28, 2015

Padamshree Dr. Lala Surajnandan Prasad



डा0 लाला सूरजनन्दन प्रसाद जन्म जनवरी 1914 को बिहारशरीफ के एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुआ था। वे दो भाई और दो बहनों में सबसे छोटे थे। उनके पिता बाबू राम प्रसाद लाल पेशे से वकील थे। बाद में वे दुमका में बस गये तथा वहीं डा लाला ने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उन्हें हाईस्कूल में पूरे भागलपुर डिवीजन में प्रथम स्थान प्राप्त करने के उपलक्ष में मैक्फारसेन स्वर्ण पदक तथा उच्चतर अध्ययन के लिये प्रदेश सरकार की स्कालरशिप प्रदान की गयी। इसके पश्चात 1933 में पटना साईंस कालेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा के पास करते ही इनका विवाह पुर्णिया के समेली के जमींदार श्री कामता प्रसाद जी की पुत्री शकुन्तला देवी से हुआ। इंटरमीडिएट के बाद उन्होंने प्रिंस आफ वेल्स मेडिकल कालेज में प्रवेश लिया तथा 1939  में एम0 बी0 बी0 एस0 की डिग्री प्राप्त की। एक वर्ष के इन्टर्नशिप के पश्चात 10 अक्टूबर 1940 से प्रादेशिक स्वास्थ सेवा के अन्तर्गत असिस्टेंट सिविल सर्जन के पद पर दानापुर, गोपालगंज, नवादा एवं सुपौल के प्राथमिक सेवा केन्द्रों में काम करने के पश्चात उनका स्थानान्तरण पटना मेडिकल कालेज में डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट के पद पर हो गया। अप्रैल 1945 में लन्दन से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिये बिहार सरकार द्वारा स्कालर्शिप प्रदान की गयी। उस समय लन्दन पानी के जहाज से जाना था तथा विश्वयुद्ध के चलते इनके माता-पिता बहुत चिंतित थे। इनकी माता जी चुपके से इनकी जन्मपत्री लेकर पंडित विष्णु कान्त झा जी के पास चली गयीं और पूछा कि उनका बेटा लन्दन से सही सलामत लौटेगा कि नहीं? जब उन्होंने बताया कि डा लाला ३ वर्ष बाद उच्च शिक्षा ग्रहण करके सकुशल वपस आ जायेंगे तभी उन्हें लन्दन जाने की अनुमति दी गयी
विश्वयुद्ध के कठिन हालातों का सामना करते हुये डा0 लाला 35 दिनों की समुद्री यात्रा पूरी कर मई 1945 में लन्दन पहुँचें। उस समय विश्व युद्ध और जर्मनी कि वायुसेना की बमबारी के कारण लन्दन शहर विकट परिस्थितियों से गुजर रहा था। रहने के लिये ठिकाना मुश्किल था, खाने-पीने के सामानों की राशिनिंग थी, तथा दूध-अंडा केवल बच्चों एवं गर्भवती महिलाओं के लिये सुरक्षित था।
इन विकट परिस्थितियों में, अथक प्रयास के पश्चात डा0 लाला को लन्दन युनिवर्सिटी के अस्पताल में शिशु रोग में डिप्लोमा के क्लास अटेंड करने की अनुमति मिल गयी। डिप्लोमा कोर्स खत्म करते करते विश्वयुद्ध समाप्त हो गया था। इसके पश्चात उन्होंने स्काट्लैन्ड के इडिंगबर्ग यूनिवर्सिटी के प्रथम पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स इन इन्टर्नल मेडिसिन मे प्रवेश लिया। एम0 आर0 सी0 पी0 परीक्षा (शिशु रोग स्पेशल पेपर) पास करने के पश्चात् डा लाला ने सिम्पसन मेटरनिटी हास्पिटल, इडिंगबर्ग से सोशल पेडियाट्रिक्स का ज्ञान अर्जित किया। तत्पश्चात् उन्होंने लन्दन से मुम्बई तक की समुद्री यात्रा 16 दिनों में सम्पन्न की। यात्रा के दौरान 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और सभी यात्रियों ने जहाज पर ही ध्वजारोहण किया और आजादी का जश्न मनाया। पटना वापस आकर उन्होंने मेडिकल कालेज के शिशु रोग विभाग में लेक्चरर के पद पर 1948-61 तक अध्यापन का कार्य किया तथा इसी विभाग में प्रोफेसर के पद पर 1962-71 तक रहे। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि पटना में एक चिल्ड्रेन अस्पताल हो। वे इसके लिये काफी समय से प्रयत्नशील थे। उनके अथक प्रयास से मेडिकल कालेज के प्रांगण में बच्चों की चिकित्सा के लिये अलग से चिल्ड्रेन अस्पताल (अपग्रेडेड डिपार्टमेंट आफ पेडियाट्रिक्स) की स्थापना की गयी। इसके प्रथम विभागाध्यक्ष के रुप में उन्होंने 1971 तक कार्य किया।
            वे अपने इस कार्यकाल में कुशल चिकित्सा के साथ-साथ शोध में भी अग्रणी रहे। उनके लगभग 50 शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं तथा इतने ही राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय कान्फ्रेस/ सेमिनार में उन्होंने शोधपत्र प्रस्तुत किये। वे “कालाजार” की चिकित्सा में भी अग्रणी रहे तथा कई एम0 डी0 एवं पी0 एच0 डी0 के शोधकर्ताओं के सुपर्वाइजर भी रहे। डा0 लाला 1964 में स्थापित “इंडियन एकेडमी आफ पेडियाट्रिस” के फाउन्डर प्रेसिडेंट भी थे। उनके सम्मान में पटना मेडिकल कालेज में “लाला सूरजनन्दन मेमोरियल आडिटोरियम” स्थापना की गई।
सेवानिवृत  होने के पश्चात् वे अपने नाला रोड, कदमकुआं, पटना स्थित निवास से शिशुरोग चिकित्सा मे लग गये। इस दौरान उन्हें काफी ख्याति मिली तथा भारत में ही नहीं विदेशों में भी उनके काफी प्रशंसक बने। रिटायर्मेन्ट के बाद भी उन्होंने अपना शोध जारी रखा तथा लगभग हर वर्ष “इन्टर्नेशनल पेडियाट्रिकस” कान्फरेंसों में शोध पत्र प्रस्तुत करते रहे।
उन्होंने अगमकुआँ में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद के नाम पर स्थापित “राजेन्द्र मेमोरियल रिसर्च इंस्टीच्यूट” के मानक निदेशक के रुप में भी कई वर्षों तक कार्य किया। संस्था को चलाने के लिये भाग दौड़  कर बिहार, बंगाल, उडीसा तथा केन्द्र सरकारों से अनुदान लाते थे। उस समय वहाँ पर दमा एवँ कालाजार पर अनुसंधान को प्राथमिकता दी गयी थी। रोगियों में प्रोटीन की कमी को दूर करने के लिये  प्रोटीन एक्स्ट्रैक्टर मशीन लगायी गयी। इससे पालक का प्रोटीन निकाल कर बर्फी बनवाकर रोगियों को दिया जाता था।  उनका आयुर्वेद में भी विश्वास था तथा उनके प्रयास से 1980 में आयुष विभाग, स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा संस्था के प्रांगण में ही “क्षेत्रीय आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान” की स्थापना की गयी। इस संस्था द्वारा आज भी रोगियों को आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं दवाईयां निशुल्क दी जाती हैं। डा लाला के प्रयास से “राजेन्द्र मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट” का संचालन 1984 से भारत सरकार के “इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च” द्वारा हो रहा है।
व्यक्तिगत जीवन में भी डा लाला काफी संवेदनशील थे तथा उनका परिवार के साथ-साथ अपने भाई बहनों के परिवारों से भी काफी लगाव था। सभी के लिये डा लाला का घर शिक्षा एवं चिकित्सा का केन्द्र रहा। उनके कार्य में व्यस्त रहने के कारण घर की सारी जिम्मेदारियाँ उनकी धर्मपत्नी श्रीमति शकुन्तला देवी बडी कुशलता से उठाती थीं।
डा0 लाला बडे शौकीन व्यक्ति थे। खाने में विभिन्न प्रकार के नानवेज व्यंजनों में कबाब और मछ्ली काफी पसंद थी। अच्छा पहनना, अच्छा खाना, तथा अच्छी गाडियों के शौक के साथ गोल्फ खेलना भी बहुत पसंद था। वे लगभग 75 वर्ष की आयु तक इसे खेलने के लिये पटना गोल्फ क्लब जाया करते थे।
स्वर्गीय डा जयप्रकाश नारायण से इनका घरेलू संबंध था। जयप्रकाश जी को डा लाला पर इतना भरोसा था कि उनकी किसी भी चिकित्सा में इनकी उपस्थिति अनिवार्य थी। रिटार्यमेन्ट के पश्चात लगभग 35 वर्ष तक चिकित्सा करते हुये 95 वर्ष की आयु में 22 अप्रैल 2009 को पटना में उनका देहावसान हो गया। वे अपने पीछे 5 पुत्र, 3 पुत्रियों तथा पौत्र और प्रपौत्रों से भरा परिवार छोड़ गये हैं।

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